Today we bring you the best collection of Mirza Ghalib Love Shayari In Hindi 2 Lines, which you can share with your partner.
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना ‘ग़ालिब’ किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बअ’द
🔘 नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को। ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।।
“हम जो सबका दिल रखते हैंसुनो, हम भी एक दिल रखते हैं”
आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी अब किसी बात पर नहीं आती
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
ज़िन्दग़ी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा।
यह ज़िद की आज न आये और आये बिन न रहे, काजा से शिकवा हमें किस क़दर है,क्या कहिये।
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग हम को जीने की भी उम्मीद नहीं
बिताने हुए लम्हों को मैं एक बार तो जी लो.. कुछ ख्वाब तेरा याद दिलाने के लिए हैं …
बना कर फकीरों का हम भेष ग़ालिब, तमाशा एहल-ए-करम देखते हैं।
अदा-ए-ख़ास से ‘ग़ालिब’ हुआ है नुक्ता-सरा सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए
कोई वीरानी सी वीरानी है दश्त(forest)को देख के घर याद आया
“इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदालड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं”
“एजाज़ तेरे इश्क़ का ये नही तो और क्या है,उड़ने का ख़्वाब देख लिया इक टूटे हुए पर से !!”
आज यह प्रार्थना इश्क़ के काबिल नहीं रहा .. जिस दिल पे मुझे नाज था वो दिल नहीं रहा !!!
कुछ लम्हे हमने खर्च किए थे मिले नही, सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया !
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का। उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले।।
“मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं,हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं !!”
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़। वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
“ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर,आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में !!”
इश्क़ पर जोर नहीं, है ये वो आतिश ग़ालिब कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।।
इशरत ऐ क़तरा है दरिया मैं फ़ना हो जाना… दर्द का हद् से गुज़ारना हैं दवा हो जाना ॥
उनके देखने से जो आ जाती है चेहरे पर रौनक, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।
पूछते हैं वो कि ‘ग़ालिब’ कौन है कोई बतलाए कि हम बतलाएँ क्या
किसी फ़कीर की झोली में कुछ सिक्के डाले तो ये अहसास हुआ, महंगाई के इस दौर में दुआएं आज भी सस्ती हैं।।
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना। आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना।।
दुःख दे कर सवाल करते हो, तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो !
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मीरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले.
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल में ‘ग़ालिब’ सरीर-ए-ख़ामा नवा-ए-सरोश है
दिल से तेरी निगाह जिगर ताक उतर गया.. दोनों को इक आदा में रज़ामंद कर गया ॥
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी, उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया !
“इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’कि लगाए न लगे और बुझाए न बने”
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब’, कोई दिन और भी जिए होते।
कोई उम्मीद बर नहीं आती, कोई सूरत नज़र नहीं आती !
हाज़ारो ख़्वाहिशे ऐसि है की हार ख़्वाहिश पे दम निकले .. बोहोत निकले मेरे अभिलाषा लेकिन फिर भि कम निकले !!!
मेरे जेब में जहां पर जरा सा छेद किया हुआ .. सिक्के से जादा मेरे रिस्ते गिर गेए !!
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘गालिब’ कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे !
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
चाँदनी रातो कि खामोश सितारो के कसम, दिल मै आब तेरे सिवा कोई भि आबाद नही !!!
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के
रोने से और इश्क में बे-बाक हो गए, धोये गए हम इतने कि बस पाक हो गए।
अदा-ए-ख़ास से ‘ग़ालिब’ हुआ है नुक्ता-सरा सला-ए-आम है यारान-ए-नुक्ता-दाँ के लिए
तुम न आए तो क्या सहर न हुई, हाँ मगर चैन से बसर न हुई, मेरा नाला सुना ज़माने ने, एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।।
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
हैं और भी दुनिया में सुखन-वर बहुत अच्छे, कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और।
“कुछ लम्हे हमने ख़र्च किए थे मिले नही,सारा हिसाब जोड़ के सिरहाने रख लिया !!”
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़। वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है।।
नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं।।
मोहब्बत मे फर्क नहीं रहते जीने और मरने का.. उसको देख कर जीता हूँ जिस काफिर पे दम निकले||
फिर तेरे कूचे को जाता है ख्याल, दिल-ऐ-ग़म गुस्ताख़ मगर याद आया।
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब। नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।।
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’ कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही ज़िन्दगी हमारी है !
आया है बे-कसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब, पाता नही किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद !!
न सुनो गर बुरा कहे कोई, न कहो गर बुरा करे कोई।
अगर ग़फ़लत से बाज़ आया जफ़ा की तलाफ़ी की भी ज़ालिम ने तो क्या की
“न सुनो गर बुरा कहे कोई,न कहो गर बुरा करे कोई !!”
सादगी पर उस के मर जाने की हसरत दिल में है, बस नहीं चलता की फिर खंजर काफ-ऐ-क़ातिल में है।
जब तवक़्क़ो ही उठ गई ‘ग़ालिब’ क्यूँ किसी का गिला करे कोई
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है !
इक शौक़ बड़ाई का अगर हद से गुज़र जाए, फिर ‘मैं’ के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता।
आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे
वो आए घर में हमारे खुदा की कुदरत है, कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं !
कितना खौफ होता है, शाम के अंधेरों में, पूछ उन परिंदो से, जिनके घर नहीं होते।।
“रोक लो गर ग़लत चले कोई,बख़्श दो गर ख़ता करे कोई !!”
उस अंजुमन-ए-नाज़ की क्या बात है ‘ग़ालिब’ हम भी गए वाँ और तिरी तक़दीर को रो आए
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं! कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं
वाइज़!! तेरी दुआओं में असर हो तो मस्जिद को हिलाके देख। नहीं तो दो घूंट पी और मस्जिद को हिलता देख।।
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा काम मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे आगे
🔘 दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई। दोनों को इक अदा में रज़ामंद कर गई।।
वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी, उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया।
कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी
पीने दे शराब मस्जिद में बैठ कर, या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं।
हम जो सबका दिल रखते हैं, सुनो, हम भी एक दिल रखते हैं।
आगही दाम-ए-शुनीदन जिस क़दर चाहे बिछाए मुद्दआ अन्क़ा है अपने आलम-ए-तक़रीर का
उनकी देखंय सी जो आ जाती है मुंह पर रौनक, वह समझती हैं केह बीमार का हाल अच्छा है !
अपनी गली में मुझ को न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
अगर लिखवाए कोई उस को खत तो हम से लिखवाए .. हुई सुभा और घरसे कान पर रख कर कलम निकले !!
कुछ लम्हे हामने ख़र्च किए थे पर वो मिले नही, सब कुछ हिसाब जोड़ के सिरहाने पे रख लिया !!!
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा, कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है ?
आँख की तस्वीर सर-नामे पे खींची है कि ता तुझ पे खुल जावे कि इस को हसरत-ए-दीदार है
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा वो क़त्ल भी करते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है !
जान तुम पर निसार करता हूँ मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मौत का एक दिन मु’अय्यन है, निद क्यों रात भर नही आती ?
ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़(religious wise man)बुरा कहे ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
दिल सी तेरी निगाह जिगर तक उतर गई, 2नो को एक अड्डा में रज़्ज़ा मांड क्र गए !
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के
ज़िन्दगी उसकी जिस की मौत पे ज़माना अफ़सोस करे ग़ालिब, यूँ तो हर शक्श आता हैं इस दुनिया में मरने कि लिए.
🔘 दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है। आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।।
“गुज़र रहा हूँ यहाँ से भी गुज़र जाउँगा,मैं वक़्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा !!”
जाते हुए कहते हो क़यामत को मिलेंगे क्या ख़ूब क़यामत का है गोया कोई दिन और
इश्क मुझको नहीं, वहशत ही सही, मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही !
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
“जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन,बैठे रहें तसव्वुर–ए–जानाँ किए हुए !!”
“कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर–ए–नीम–कश कोये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता”
आइना पर देख के आपना सा मुँ लेके रेह गेए.. मालिक को दिल ना देने पे इतना गुरूर था !!
“कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता,तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता !!”
कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने
“तुम अपने शिकवे की बातेंन खोद खोद के पूछोहज़र करो मिरे दिल सेकि उस में आग दबी है.”
इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने
🔘 हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे। कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और।।
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है
आगे आती थी हाल-इ-दिल पे हंसी अब किसी बात पर नहीं आती
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
दिल–ए–नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है।
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्हीं कहो कि ये अंदाज-ए-गुफ़्तगू क्या है !
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले !
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’ कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था
तेरे वादे पर जिए हम तो ये जान झूट जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए’तिबार होता
फिर उसी बेवफा पे मरते हैं, फिर वही जिंदगी हमारी है ।
हैं एक तिर जिस मै दोनों छिदे पड़े है .. वह वक़्त गए कि अपने मन से जिगर जुड़ा था !!
इक ख़ूँ-चकाँ कफ़न में करोड़ों बनाओ हैं पड़ती है आँख तेरे शहीदों पे हूर की
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब, नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते।
aah ko chaahie ik umr asar hote tak, kaun jeeta hai tiri zulf ke sar hote tak! हम वहाँ हैं जहां से हमको भी कुछ हमारी खबर नहीं आती
अब जफ़ा से भी हैं महरूम हम अल्लाह अल्लाह इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा हो जाना
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ वर्ना क्या बात कर नहीं आती
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना !
“इक क़ुर्ब जो क़ुर्बत को रसाई नहीं देता,इक फ़ासला अहसास–ए–जुदाई नहीं देता”
इश्क़ से तबीअत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया दर्द की दवा पाई दर्द-ए-बे-दवा पाया
अर्ज़–ए–नियाज़–ए–इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा, जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा।
कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए
मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था दिल भी या-रब कई दिए होते
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
रोक लो गर ग़लत चले कोई, बख़्श दो गर ख़ता करे कोई।
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के।
उम्र भर ग़ालिब यही भूल करते रहे। धूल चेहरे पर थी, हम आईना साफ़ करते रहे।।
बस की दुश्वार है हर काम का आसान होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसान होना।
एक हंगामे पे मौक़ूफ़ है घर की रौनक़ नौहा-ए-ग़म ही सही नग़्मा-ए-शादी न सही
काफ़ी है निशानी तिरा छल्ले का न देना ख़ाली मुझे दिखला के ब-वक़्त-ए-सफ़र अंगुश्त
“भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी,बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया !!”
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना। दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।।
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक, कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक !
ईस भोलापन पे कौन ना मर जाए ए खुदा, लड़ते हे और हाथ मै तलवार भी नहीं !!
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन। हमारी ज़ेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है।।
तुम न आओगे तो मरने कि है सौ ताबीरें, मौत कुछ तुम तो नहीं है कि बुला भी न सकूं।
मोहब्बत मै उनकी आना का पास रखते है, हम जानकर भी अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हे !!
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से जफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब ख़ून-ए-जिगर वदीअत-ए-मिज़्गान-ए-यार था
मुहब्बत में उनकी अना का पास रखते हैं, हम जानकर अक्सर उन्हें नाराज़ रखते हैं।
कितने शीरीं(मीठे) हैं तेरे लब कि रक़ीब(enemy) गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ
मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
रेख्ते के तुम्हें उस्ताद नहीं हो ग़ालिब, कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था ! phir usi bevapha pe marte hain, phir vahi zindagee kamari hai !
कहते हुए साक़ी से हया आती है वर्ना है यूँ कि मुझे दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत है
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए। दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।।
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था, दिल भी या रब कई दिए होते।
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए क्यूँ
कोई उम्मीद बर नहीं आती कोई सूरत नज़र नहीं आती
गुज़र रहा हूँ यहाँ से भी गुज़र जाउँगा, मैं वक़्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा।
जिंदगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते, कफन भी लेते है तो अपनी जिंदगी देकर !
होगा कोई ऐसा भी कि ‘ग़ालिब’ को न जाने शायर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत है
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं।
“है और तो कोई सबब उसकी मुहब्बत का नहीं,बात इतनी है के वो मुझसे जफ़ा करता है !!”
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का, उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले !
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले
हाथों की लकीरों पे मत जा ऐ गालिब, नसीब उनके भी होते है जिनके हाथ नहीं होते !
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता।
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन। दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़्याल अच्छा है।।
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता !
मुझसे कहती है तेरे साथ रहूंगी सदा, ग़ालिब। बहुत प्यार करती है मुझसे उदासी मेरी।।
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं है क़ायल, जब आपनि आँख से ना टपका तो फिर लहू कया हैं !!
“तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको,ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है ….”
कौन पूछता है पिंजरे में बंद पक्षी को ग़ालिब .. याद वही आते है जो छोड़कर उड़ जाते है !!
आया है बेकसी-ए-इश्क पे रोना ग़ालिब, किसके घर जायेगा सैलाब-ए-बला मेरे बाद !
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे, दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे !
Mat Pooch Ki Kya Haal Hai Mera Tere Peeche, Tu Dekh Ki Kya Rang Hai Tera Mera Aage।
बक रहा हूँ जूनून में क्या क्या कुछ कुछ ना समझे खुदा करे कोई !
दर्द जब भी दिल मै हो तो दवा किजिए .. दिल हि जाब दार्द हो तो कया किजिए !!
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी अब किसी बात पर नहीं आती
“गुज़रे हुए लम्हों को मैं इक बार तो जी लूँ,कुछ ख्वाब तेरी याद दिलाने के लिए हैं !!”
गुजर रहा हूँ यहाँ से भी गुजर जाउँगा, मैं वक्त हूँ कहीं ठहरा तो मर जाउँगा !
लोग कहते है दर्द है मेरे दिल में, और हम थक गए मुस्कुराते मुस्कुराते !
कोई वीरानी सी वीरानी है, दश्त को देख के घर याद आया।
आज वाँ तेग़ ओ कफ़न बाँधे हुए जाता हूँ मैं उज़्र मेरे क़त्ल करने में वो अब लावेंगे क्या
ना कर इतना गौरव अपने नाशे पे शाराब .. तुझसे भि ज्यादा नाशा रखती हें आँखे किसी की !!!
एजाज़ तेरे इश्क़ का ये नही तो और क्या है, उड़ने का ख़्वाब देख लिया इक टूटे हुए पर से।
हम तो फना हो गए उसकी आंखे देखकर गालिब, न जाने वो आइना कैसे देखते होंगे !
आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए, साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था।
“अर्ज़–ए–नियाज़–ए–इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहाजिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा”
“मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे,तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे !!”
“फ़िक्र–ए–दुनिया में सर खपाता हूँमैं कहाँ और ये वबाल कहाँ !!”
🔘 रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ‘ग़ालिब’। कहते हैं अगले ज़माने में कोई ‘मीर’ भी था।।
मैं नादान था जो वफा को तलाश करता रहा ग़ालिब, यह न सोचा की, एक दिन अपनी साँस भी बेवफा हो जाएगी !
इतना दर्द न दिया कर ए ज़िन्दगी, इश्क़ किया है कोई क़त्ल नहीं।।
ज़िन्दगी से हम अपनी कुछ उधार नही लेते, कफ़न भी लेते है तो अपनी ज़िन्दगी देकर।
“यादे–जानाँ भी अजब रूह–फ़ज़ा आती है,साँस लेता हूँ तो जन्नत की हवा आती है !!”
जान दी दी हुई उसी की थी हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ
जरा सा छेद क्या हुआ मेरे जेब में सिक्कों से ज्यादा तो रिश्तेदार गिर गए।।
निकलना ख़ुल्द(jannat)से आदम का सुनते आए हैं लेकिन बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से हम निकले
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं
बे-खुदी बे-सबब नहीं ग़ालिब, कुछ तो है जिस की परदा-दारी है।
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे पीछे, तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे आगे।
कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में.. पूछो उन पन्छियो से जिनके घर नहीं होते !!
मैं ने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’ मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
तेरा फिरने का इंतज़ार मे नींद न आई उम्र भर, आने का अहद कर गैए आए जो रोज ख़्वाब मै !!
इसलिए कम करते हैं जिक्र तुम्हारा, कहीं तुम खास से आम ना हो जाओ !
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और
🔘 इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’। कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे।।
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता। डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता।।
कहते हैं जीते हैं उम्मीद पे लोग हम को जीने की भी उम्मीद नहीं
🔘 न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा। कोई बताओ कि वो शोखे-तुंदख़ू क्या है।।
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’ शर्म तुम को मगर नहीं आती
🔘 काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’। शर्म तुम को मगर नहीं आती।।
मोहब्बत में नही फर्क जीने और मरने का, उसी को देखकर जीते है जिस ‘काफ़िर’ पे दम निकले।।
उस पे आती है मोहब्बत ऐसे, झूठ पे जैसे यकीन आता है।
काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’ शर्म तुम को मगर नहीं आती
“रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल,जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है !!”
काव काव-ए-सख़्त-जानी हाए-तन्हाई न पूछ सुब्ह करना शाम का लाना है जू-ए-शीर का
कितना खौफ होता है शाम के अंधेरूँ में, पूँछ उन परिंदों से जिन के घर्र नहीं होते …
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन। दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़्याल अच्छा है।।
न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता। डुबोया मुझको होने ने, न मैं होता तो क्या होता।।
कासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ, मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में।
मोहब्बत तो दिल से की थी, दिमाग उसने लगा लिया, दिल तोड़ दिया मेरा उसने और इल्जाम मुझपर लगा दिया।
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है, वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
आता है दाग़-ए-हसरत-ए-दिल का शुमार याद मुझ से मिरे गुनह का हिसाब ऐ ख़ुदा न माँग
ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर, या वह जगह बता जहाँ खुदा नहीं.
मैं उदास बस्ती का अकेला वारिस, उदास शख्सियत पहचान मेरी।
मंजिल मिलेगी तुझे बेहक्के हि सही , गुमरां तो वो लोग हे जो घर से निकलते हि नहीं !!!
क़र्ज़ की पीते थे मय, लेकिन समझते थे कि हां रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।।
यों ही उदास है दिल बेकरार थोड़ी है, मुझे किसी का कोई इंतज़ार थोड़ी है.।
कब वो सुनता है कहानी मेरी और फिर वो भी ज़बानी मेरी
🔘 कितना ख़ौफ होता है शाम के अंधेरों में। पूछ उन परिंदों से जिनके घर नहीं होते।।
मत पूँछ की क्या हाल हैं मेरा तेरे पीछे तू देख की क्या रंग हैं तेरा मेरे आगे …
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
बना है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता, वगर्ना शहर में “ग़ालिब” की आबरू क्या है।
हुई मुद्दत कि ‘ग़ालिब’ मर गया पर याद आता है। वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता।।
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे। होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे।।
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
तुम मिलो या न मिलो नसीब की बात है पर, सुकून बहुत मिलता है तुम्हे अपना सोचकर।।
काँटों की ज़बाँ सूख गई प्यास से या रब इक आबला-पा वादी-ए-पुर-ख़ार में आवे
🔘 रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल। जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है।।
वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं। कभी हम उनको, कभी अपने घर को देखते हैं।।
मासूम मोहब्बत का बस इतना फ़साना है कागज़ की हवेली है बारिश का ज़माना है
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
यह इश्क़ नहीं आसान बस इतना समझ लीजिये, एक आग का दरया है और डूब कर जाना है !!
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
मेरा नाला सुना ज़माने ने एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई।।
फ़िक्र–ए–दुनिया में सर खपाता हूँ, मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ।
🔘 पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो चार। ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है।।
बेवजा नहीं रोता इश्क़ मै कोई ग़ालिब… जिसको खुद से बढ़कर चाहो, वो रुलाता ज़रूर है !!!
अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो जो मय ओ नग़्मा को अंदोह-रुबा कहते हैं
उस पर उतरने की उम्मीद बोहत कम है, कश्ती भी पुरानी है और तूफ़ान को भी आना है !
जब ख़ुशी मिली तो कई दर्द मुझसे रूठ गए, दुआ करो कि मैं फिर से उदास हो जाऊं।।
दिल ए नादाँन तुझे हुआ क्या है !!! आख़िर ईस दर्द कि दवा क्या हैं ॥॥॥
🔘 क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां। रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन।।
इश्क़ पर जोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’, कि लगाये न लगे और बुझाये न बुझे
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
🔘 दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ। मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।।
🔘 यही है आज़माना तो सताना किसको कहते हैं। अदू के हो लिए जब तुम तो मेरा इम्तहां क्यों हो।।
🔘 हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले। बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।।
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
ऐ बुरे वक़्त ज़रा अदब से पेश आ, क्यूंकि वक़्त नहीं लगता वक़्त बदलने में …
तेरे वादे पर जिये हम तो यह जान,झूठ जाना कि ख़ुशी से मर न जाते अगर एतबार होता।।
“ज़िन्दग़ी में तो सभी प्यार किया करते हैं,मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा !!”
बिखरा वजूद, टूटे ख़्वाब, सुलगती तन्हाईयाँ, कितने हसीन तोहफे दे जाती है ये मोहब्बत।
🔘 रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी। तो किस उम्मीद पे कहिये के आरज़ू क्या है।।
मेरे मरने का एलान हुआ तो उसने भी यह कह दिया, अच्छा हुआ मर गया बहुत उदास रहता था।
आईना देख के अपना सा मुँह लेके रह गए, साहब को दिल न देने पे कितना गुरूर था।
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं।
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया लेकिन हम को तक़लीद-ए-तुनुक-ज़र्फ़ी-ए-मंसूर नहीं
गुज़र रहा हू यहाँ से भी गुज़र जाउँगा.. मै वक़्त हू कहीं ठहरा तो मर जाउँगा !!!
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश(half drawn arrow) को ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
“उस पे आती है मोहब्बत ऐसेझूठ पे जैसे यकीन आता है”
और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया साग़र-ए-जम से मिरा जाम-ए-सिफ़ाल अच्छा है
Dil yeh Nadan Tujhe Hua Kya Hain !!! Akhhir is Daard Ki Dawaa Kya Hain ॥॥॥
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं फिर वही ज़िंदगी हमारी है
“इक शौक़ बड़ाई का अगर हद से गुज़र जाएफिर ‘मैं’ के सिवा कुछ भी दिखाई नहीं देता”
था ज़िन्दगी में मर्ग का खत्का लाग हुआ, उड़ने से पेश -तर भी मेरा रंग ज़र्द था.
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल, जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता, तुम ना होते ना सही ज़िक्र तुम्हारा होता !
तुम न आए तो क्या सहर न हुई हाँ मगर चैन से बसर न हुई।
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
दिल ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन बैठे रहें तसव्वुर-ए-जानाँ किए हुए
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है
aage aati thi haal-i-dil pe hansi ab kisi baat par nahin aati क्यों न चीखूँ की याद करते हैं मेरी आवाज़ गर नहीं आती.
तेरी दुआ में ताकत है तोह, मस्जिद को हिला के दिखा.. नहीं तो खुद दो घूँट पि और मस्जिद को हिलता देख !!
कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़ल-सरा न हुआ
“वो रास्ते जिन पे कोई सिलवट ना पड़ सकी,उन रास्तों को मोड़ के सिरहाने रख लिया !!”
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़ वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
कहूँ किस से मैं कि क्या है शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
इशरत-ए-क़तरा है(pleasure of drop)दरिया में फ़ना हो जाना दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
दर्द जब दिल में हो तो दवा कीजिए, दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजिए।।
इश्क़ ने गालिब निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के !
इस सादगी पर कौन ना मर जाये लड़ते है और हाथ में तलवार भी नहीं.
इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई मेरे दुख की दवा करे कोई
हुई जीवन काल कि ‘ग़ालिब’ मर गेया पर याद आता है, वो हर एक बात पार कहना कि यूँ होता तो क्या होता !!
ये न थी हमारी किस्मत के विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतज़ार होता।
“तेरे वादे पर जिये हमतो यह जान,झूठ जानाकि ख़ुशी से मर न जातेअगर एतबार होता”
उनके देखे जो आ जाती है रौनक वो समझते है कि बीमार का हाल अच्छा है.
तू मिला है तो ये अहसास हुआ है मुझको, ये मेरी उम्र मोहब्बत के लिए थोड़ी है।
Rok Lo Gar Galat Chale Koi, Baksh Do Gar Kahta Kare Koi।
ए’तिबार-ए-इश्क़ की ख़ाना-ख़राबी देखना ग़ैर ने की आह लेकिन वो ख़फ़ा मुझ पर हुआ
अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़(blessing of love)के क़ाबिल नहीं रहा जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
🔘 तेरे वादे पर जिये हम, तो यह जान, झूठ जाना। कि ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता।।
हथून कीय लकीरून पय मैट जा ऐ ग़ालिब, नसीब उनके भी होते हैं जिनके हाथ नहीं होते !
उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से
इन आबलों से पाँव के घबरा गया था मैं जी ख़ुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर
अपना नहीं ये शेवा कि आराम से बैठें उस दर पे नहीं बार तो का’बे ही को हो आए
उम्र भर ग़ालिब यही भूल करता रहा .. धुल था चहरे पे और आईना साफ़ करता रहा!!
उस लब से मिल ही जाएगा बोसा कभी तो हाँ शौक़-ए-फ़ुज़ूल ओ जुरअत-ए-रिंदाना चाहिए
करने गए थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला की एक ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए
आशिक़ी सब्र-तलब(patience)और तमन्ना बेताब दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब’ कोई दिन और भी जिए होते
हम को उन से वफा की है उम्मीद, जो नहीं जानते वफा क्या है !
वो उम्र भर कहते रहे तुम्हारे सीने में दिल नहीं, दिल का दौरा क्या पड़ा ये दाग भी धुल गया !
गुज़रे हुए लम्हों को मैं इक बार तो जी लूँ, कुछ ख्वाब तेरी याद दिलाने के लिए हैं।।
“ ‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइ’ज़ बुरा कहेऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे”
अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्त-नवर्दी कि बाद-ए-मर्ग हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मिरे अंदर कफ़न के पाँव
मरते हैं आरज़ू में मरने की मौत आती है पर नहीं आती
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन, दिल को खुश रखने को ‘गालिब’ ये ख्याल अच्छा है !
मंज़िल मिलेगी भटक कर ही सही, गुमराह तो वो हैं जो घर से निकले ही नहीं।।
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल(neglect)न करोगे लेकिन ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर होते तक